Saturday 19 January 2013

कांग्रेस का संक्षिप्त इतिहास

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना सन 1885 में हुई और इसी वर्ष इसका प्रथम अधिवेषन डब्ल्यू.सी. बनर्जी की अध्यक्षता में बम्बई में सम्पन्न हुआ। दादाभाई नौराजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और मदनमोहन मालवीय जैसे देष के महान सपूतो ने इस संस्था की नीव रखी। यह दुनिया की सबसे पुरानी व सबसे बडी प्रजातांत्रिक राजनीतिक संस्थाओं में होने का दावा कर सकती है।

कांग्रेस की स्थापना से अब तक कई महान नेताओं ने इसी छत्रछाया में जिस लगन और निष्ठा के साथ मातृभूमि की सेवा की है, उससे अनेक भारतीयो को प्रेरणा मिली है और आने वाली पीढिया भी प्रेरित होती रहेगी। इन्हीं नेताओं के त्याग, बलिदान और निष्ठा के परिणाम स्वरूप यह महान संस्था विदेषी शासन से हमारी मातृभूमि को मुक्त करने का साधन बन सकी। कांग्रेस का इतिहास स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास के साथ-साथ देष के सामाजिक आर्थिक परिवर्तन का इतिहास है।

कांग्रेस की तेजी से प्रगति के विभिन्न कारणो में से एक यह भी रहा है कि इसमें भारत के सभी वर्गो की प्रतिनिधि थे। इनके संस्थापको, अध्यक्षो और नेताओं में अल्पसंख्यक समुदाय के मान्य नेता थे। जैसे प्रथम अध्यक्ष श्री डब्ल्यू सी. बनर्जी ईसाई थे, दूसरे अध्यक्ष श्री दादाभाई नौराजी पारसी थे और तीसरे अध्यक्ष जनाब बदरूदीन तैयबजी मुसलमान थे। शुरू से ही कांग्रेस संगठन धर्मनिरपेक्ष रहा है और स्वतंत्रता भारत में राष्ट्र के नीति निर्देषक सिद्धांत में धर्मनिरपेक्षता का स्थान अल्पसंख्यको के उस योग का परिणाम है जो उन्होंने इस महान संगठन के निर्माण में दिया है।

प्रारंभ से ही कांग्रेस का लक्ष्य संसदीय संस्थाओं की स्थपना रहा है। महान संविधान शास्त्रियों जैसे दादाभाई नौराजी , सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और गोपाल कृष्ण गोखले ने संसदीय प्रणाली वाली सरकार की स्थापना और धर्मनिरपेक्ष,बहुभाषी और बहुधर्मी राष्टवाद के विकास के लिये निरंतर परिश्रम   किया। बीसवी शताब्दी के शुरू में कांग्रेसजनों ने जिनकी संख्या दीनो दिन बढती जा रही थी यह महसूस किया कि विदेषी शासक भारतीयों की मांगो की ओर बिल्कुल ध्यान नही दे रहे है अतः उग्र राष्ट्रवादी भावना में प्रथम सर्वश्री बालगंगाधर तिलक अरविन्द घोष लाला राजपत राय बौर विपिन चंद्रपार ने कहा है कि स्वराज मेरा जन्म सि़द्ध अधिकार है। लेकिन कांग्रेस में नरम नीति में विष्वास रखने वाले अनेक लोग थे। इन विचारधाराओं की टक्कर 1907 के सूरत अधिवेषन में हुई। अधिकतर कांग्रेसजनों ने लोकमान्य तिलक की नीति का समर्थन किया और नरम नीति के समर्थको को संगठन से अलग होना पडा। इस विभाजन से कांग्रेस को बल मिला। बाद में श्रीमती एनी बेसन्ट और अन्य के नेतृत्व में प्रथम विष्व युद्ध के दौरान होम रूल आंदोलन से इस आंदोलन को और नई शक्ति व स्फूर्ति मिली।


जलियांवाला बाग हत्याकांड: महात्मा गांधी का नेतृत्व


जब ब्रिटेन युद्ध में विजयी हुआ तो भारतीयों को यह आषा थी कि वह उनकी आजादी की आकांक्षाओं पर ध्यान देगा। लेकिन ब्रिटिष शासको ने जवाब दिया अमृतसर के जलियांवाला बाग में सैकडों भारतीयों की हत्या करके। जनता के प्रिय नेता जैसे लाला लाजपतराय और सैफुदीन किचलू।


कराची में कांग्रेस: मल अधिकारो का प्रस्ताव


सरदार वल्लभ भाई पटेल की अध्यक्षता में 1931 में कांग्रेस के ऐतिहासिक कराची अधिवेशन में मूल अधिकारो के बारे में प्रसिद्ध प्रस्ताव पास किया गया जिसे स्वयं महात्मा गांधी ने पेश किया था। यह एक महत्वपूर्ण कदम था। यह मांग की कि स्वराज्य मिलने के बाद देश का जोे संविधान बनाया जाए उसमें इस प्रस्ताव में उल्लेखित कुछ मूल अधिकार अवश्य शामिल हो।
प्रस्ताव में कहा गया था देश की जनता का शोषण न हो इसके लिए जरूरी है कि राजनीतिक आजादी के साथ -साथ करोडो भूखे-नंगो को असली मायनों में आर्थिक आजादी मिले।


लखनऊ कांग्रेस 1936: नेहरू के नेतृत्व में विदेश नीति निर्धारित


लखनऊ अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस की नीतियों को नई दिशा देने का प्रयत्न किया। उनका सबसे महत्वपूर्ण काम देश की विदेश - नीति निर्धारत करना था जो शांति और आजादी सारी दुनिया में आजादी के लिये लडने वालो के समर्थन और साम्राज्यवाद के विरोध पर आधारित थी और सचमुच इसके बाद के वर्षो में और आजादी मिलने के बाद भी देश की विदेश नीति उन्ही सिद्धतों पर आधारित रही है।


फैजपुर कांग्रेस: कृषि कार्यक्रम


1937 में फैजपुर अधिवेशन भी जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में हुआ।  इसमें खेती के बारे में प्रदेश कांग्रेस समितियों की रिपोर्ट का अध्ययन करके देश की कृषि समस्या पर एक व्यापक प्रस्ताव पास किया गया।
कराची कांग्रेस के मूल अधिकार प्रस्ताव की तरह ही फैजपुर कृषि -कार्यक्रम का कांग्रेस की भूमि-संबंधी नीतियों के निर्धारण में बडा महत्व है।


रचनात्मक संगठन


कांग्रेस संगठन ने महात्मा गांधी के मार्गदर्शन/निर्देशन में रचनात्मक गतिविधियों पर विशेष ध्यान दिया जिससे नागरिकों को आने वाले कल के लिए तैयार किया जा सके और राष्ट्र में न केवल अधिकारों बल्कि कर्तव्य के प्रति सचेंत रहने की भावना जाग्रत की जा सके। खादी संघ, अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संस्था और ऐसे ही अन्य रचनात्मक संगठनों के जरिए कांग्रेसजन महात्मा गांधी के सीधे निर्देशन में देश भर के गांवो मे दूर-दूर तक सभी क्षेत्रों में फैल गए। इस कार्य ने राष्ट्र को आजादी के अंतिम संघर्ष के लिये और नये भारत के पुनः निर्माण के लिए तैयार करने में बहुत बडा योग दिया।

इस सिलसिले में हिन्दुस्तानी तालीमी संघ का कार्य बहुत ही महत्वपूर्ण तथा उल्लेखनीय है इस योजना के निर्माता महत्मा गांधी के मुख्य सलाहकार और भारत के महान सपूत शिक्षाविद और राष्ट्रवादी डाॅ जाकिर हुसैन थे जो कि बाद में राष्ट्र के तीसरे राष्ट्रपति बने। नई योजना का आधार हस्तशिल्प की शिक्षा थी, जिससे प्रशिक्षित पढाई के बाद स्वावलम्बी जीवन बिता सके।


कांग्रेस की जड जनता में


महात्मा गांधी ने अखिल भारतीय हरिजन सेवक संघ की स्थापना की। गांधीजी ने 1934 में जेल से रिहा होने के बाद हरिजनो के उद्धार के लिए देश भर का दौरा किया। इस प्रकार हरिजन सेवक संघ एक साधन बन गया और इसके माध्यम से राष्ट्रवादी आंदोलन ने देश की जनता के शोषित और दलित वर्ग से निकट संबंध स्थापित किये।
इस प्रकार महात्मा गांधी के कुशल नेतृत्व में बहुत सी रचनात्मक संस्थाओं के माध्यम से कांग्रेसजनों ने पूरे देश में स्वदेशी आंदोलन का प्रसार कर विदेशी हुकुमत के खिलाफ नव जागृति की।


स्वाधीनता प्राप्ति


श्री जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में 1929 में लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता की प्रतिज्ञा ली गई। अगस्त 1942में बम्बई की अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की ऐतिहासिक बैठक में जं मौलाना अब्दुल कलाम आजाद की अध्यक्षता में हुई, महात्मा गांधी ने ‘‘करो या मरो’’ का शंखनाद किया और भारत की जनता एक होकर विदेशियों से आजादी छिनने के लिये उठ खडी हुई। भारत के लोग निहत्थे थे, फिर भी ब्रिटिश शासको की पाश्विक शक्ति से एक होकर निडरता से जूझ गये। उनके संघर्ष को 1974 में सफलता मिली और भारत आजाद हो गया।

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने दक्षिण पूर्व एशिया में जापानियों द्वारा युद्ध में बंदी बनाये गये ब्रिटेन के भारतीय सैनिकों को आजाद हिन्द फौज बनाई। देश की लडाई में इस फौज ने देश की सीमा पर दस्तक देकर ब्रिटिश हुकूमते की चूले हिला दी। इससे भारतीय पुलिस और ब्रिटिश भारतीय नौसेना पर भी असर हुआ और उसने भारत छोडने के लिये ब्रिटेन के फैसले में काफी योगदान किया।  नेता की विमान दुर्घटना में मृत्यु हो गई, और वे भारत के स्वाधीनता संघर्ष के अमर सेनानी बन गये।

स्वतंत्रता आंदोलन ने कई महान व्यक्तियों और आधुनिक संसदीय व्यवस्था के प्रवर्तकांे को अग्रिम पंक्ति में खडा कर दिया जैसे देशबन्धु चित्तरंजन दास और पंडित मोती लाल नेहरू। उन्होने  देश को दिग्गज और स्वतंत्रता संग्राम के जबरदस्त सेनानी दिये जैसे जवाहरलाल नेहरू सरदार पटैल, मौलाना आजाद, और राजेन्द्र प्रसाद। उसने महान देश भक्तो और शहीदो को जन्म दिया। सर्व श्री खुदीराम बोस, चन्द्रशेखर, आजाद, भगत सिंह, अषफाकउल्ला आदि। इनके अलावा इंडिया स्टेट पीपुल्स कान्फे्रस के अनेक नेताओं ने देषी रियासती में स्वतत्रंता अंादोलन को प्रेरित किया और वहां की जनता ने अपनी कुर्बानियों से भारत के स्वाधीनता आंदोलन में अपना योगदान दिया देष को स्वतंत्र करने में भागीदार बने।


राष्ट्रीय आयोजन समिति


कांग्रेस का हरिपुरा अधिवेषन 1938 में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की अध्यक्षता में हुआ जिसे विकास योजना तैयार करने के लिये श्री जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय समिति गठित हुई। यह कहा जा सकता है कि आजादी के बाद जो राष्ट्रीय योजना आयोग बनाया उसकी जन्मदाता यह समिति ही थी।


देष में समाजवादी समाज की स्थापना


स्वतंत्रता का अर्थ केवल यह नही होता कि देष में विदेषी शासन समाप्त हो जाये वास्तविक अर्थ तभी ग्रहण करती है और तभी उसका महत्व होता है जब शोषण समाप्त हो, का उन्मूलन हो और देष में स्वतंत्र समाजवाद की स्थापना हो। पं जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस ने बार-बार जनता को स्वतंत्रता के इस बुनियादी अर्थ और स्वतंत्रता आंदोलन का वास्तविक महत्व समझाया।

देष की आजादी के लिए  बम्बई में अगस्त 1942 को हुए कांग्रेस के ऐतिहासिक अधिवेषन निर्णायक फैसला लिया गया। इस अधिवेषन की अध्यक्षता मौलाना आजाद ने की। इस अधिवेषन में महात्मा गांधी ने भारत छोडो (अंग्रेजो भारत छोडा )े ‘‘करो या मरो’’ का क्रंातिकारी शंखनाद किया।  

अगस्त की रात्रि में ही महात्मा गांधी सहित कांग्रेस के सभी नेता गिरफ्तार की लिए गए।  9 अगस्त से अधिवेशन स्थल पर श्रीमती अरूणा आसफ अली ने कांग्रेस का तिरंगा फहरा कर कांग्रेस के नेताओं की गिरफ्तारी और गांधीजी के राष्ट्र के नाम संदेश की जानकारी दी और भूमिगत हो गई।

कांग्रेस के नेताओं की गिरफ्तारी की खबर जंगल की आग की तरह पूरे देश में फैल गई। सारे देश में विदेशी हुकुमत के विरूद्ध उग्र आंदोलन की बाढ आ गई। इन आंदोलनो को दबाने के लिए ब्रिटिश हुकुमत ने निहत्थे आंदोलनकारियों पर लाठी चार्ज के साथ गोलियां चलाई जिनमें हजारों लोग शहीद हुए लेकिन क्रांतिकारी ज्वाला थमी नही।

दिृतीय महायुद्ध की समाप्तिकर नेता जेलो में बंद रहे। जब अंग्रेजो ने समझ लिया कि उनका भारत में शासन नही चल सकता तो ब्रिटेन ने नवनिर्वाचित मजदूर दल की सरकार के प्रधान श्री एटली की पहल पर एक केबिनेट मिशन और मुस्लिम लीग तथा अन्य दलों की एक मिली जुली सरकार बनाने पर सहमति बनी। लेकिन यह सरकार चल नही सकी। अतः 1947 में देश का विभाजन हुआ और 15 अगस्त 1947 को भारत को आजादी मिली देश की पहली पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में बनी।


ऐतिहासिक आवडी अधिवेशन समाजवादी सिद्धांतो को स्वीकृति


कांग्रेस की नीति का मुख्य उद्वेश्य समाजवादी लक्ष्यों को प्राप्त करने की दिशा में 1955 का आवडी अधिवेशन एक महत्वपूर्ण कदम है। प्रसिद्ध आवडी प्रस्ताव द्वारा कांग्रेस ने अधिकारिक तौर पर घोषित किया कि समाजवादी ढ़ाचे का समाज उसका लक्ष्य है, जिसमें उत्पादन के मुख्य साधनो पर समाज का स्वामित्व या नियंत्रण हो उत्पादन तेजी से बढाया जाये और राष्ट्रीय सम्पत्ति का न्यायपूर्ण बंटवारा हो। इस प्रस्ताव पर चर्चा करते हुये श्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि भारत को अपने ढंग से समाजवाद का विकास करना है जिसकी स्थापना सरकारी आदेशो से नही कडी मेहनत से होगी।


नागपुर अधिवेशन


वर्ष 1959 के नागपुर अधिवेशन में आयोजनो पर पास किये गये व्यापक प्रस्ताव के अंत में कहा गया है कि लोगो को स्पष्ट रूप से बता दिया जाना चाहिए कि योजना का उद्वेश्य लोकतंत्रात्मक समाजवाद की स्थापना है।
नागपुर अधिवेशन में यह भी तय किया गया कि कांग्रेस सहकारी खेती के पक्ष में है इस प्रस्ताव में आह्वान किया गया कि एक परिवार के पास अधिक से अधिक कितनी भूमि हो सकती है इौर इस सीमा से अधिक जितनी भूमि हो वह पंचायत की मानी जाए और उसका प्रबंध भूमि हीन खेतिहर मजदूरों की सहकारी समितियों के हाथ में हो।


लोकतंत्र और समाजवाद संबंधी भुवनेश्वर प्रस्ताव 1964


जनवरी 1964 में कांग्रेस के भुवनेश्वर अधिवेशन में लोकतंत्र और समाजवाद पर जो प्रस्ताव पास किया गया उसमें स्पष्ट शब्दो में समाजवादी राज्य की स्थापना को कांग्रेस ने अपना लक्ष्य घोषित किया। इस प्रस्ताव द्वारा यह चेतावनी दी गई कि आर्थिक विकास इस तरीके से नही होना चाहिए कि सम्पत्ति और उत्पादन के साधन कुछ थोडे से हाथो में ही केन्द्रित हो जाए।


कांग्रेस में प्रतिक्रियावादियों की पराजय


27 मई 1964 को नेहरू जी का देहान्त हुआ। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष श्री कामराज द्वारा सर्वसम्मति प्राप्त किये जाने पर नेहरूजी के बाद श्री लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने। 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया। इस युद्ध में सभी लोगो ने धर्म सम्प्रदाय और आस्थाओं की सीमा से ऊपर उठकर मातृभूमि के लिये बलिदान देने से एक दूसरे से आगे बढ़ने की कोषिष की और साबित कर दिखाया कि कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की नीति में कितनी शक्ति है।

जनवरी 1966 में ताशकन्द में श्री लालबहादुर शास्त्री का देहान्त हो गया। इसके बाद कांग्रेस संसदीय पार्टी में सीधे मुकाबले में श्री मोरारजी देसाई को हराकर श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी। श्री देसाई की हार कांग्रेस के अंदर उन लोगो की हार थी जो कांग्रेस की समाजवादी नीतियों के पक्ष मे वोट देते हुए भी उन नीतियों पर विश्वास नही रखते थे।


1967 के चुनाव और दस सूत्री कार्यक्रम


कांग्रेस की नीतियों का ठीक से कार्यान्वयन न होने और कांग्रेस संगठन के अंदर गतिहीनता के कारण 1967 के आम चुनावों में कांग्रेस के कई उम्मीदवार हार गये और कई राज्यों में कांग्रेस की सरकारे नही बन पाई। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक ने महसूस किया कि कांग्रेस की क्षति का मुख्य कारण समाजवाद के लक्ष्य की ओर काफी तेजी के साथ बढ़ना है। कमेटी ने एक 10 सूत्री कार्यक्रम तैयार किया जिसमें बैंको पर सामाजिक नियंत्रण, आम बीमा व्यवसाय का राष्ट्रीयकरण भूतपूर्व नरेशो के विशेषाधिकार और पेंशनो (प्रिवीपर्स) की समाप्ती निर्धारित समय में समाज के सभी वर्गो की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने आदि के लिये कहा गया।


कांग्रेस की समाजवादी नीति के आलोचको को इंदिरा जी का जवाब


प्रतिक्रियावाद और यथास्थिति के समर्थको जिन्हंोने स्वयं कांग्रेस में ही जडे जमा रखी थी, समाजवाद के रास्ते अवरोध खडे कर दिये जबकि उत्तरोत्तर यह स्पष्ट होता गया कि यदि कांग्रेस समाजवाद हासिल करना चाहती है तो उसे क्रांतिकारी परिवर्तन करने होगे। अतः समाजवाद के आदर्शो और नीतियों के कार्यान्वयन की दिशा में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में अनेक क्रांतिकारी उपाय किये गये। 1969 में कांग्रेस के फरीदाबाद अधिवेशन में एक अजीब बात देखने में आई। कांग्रेस अध्यक्ष श्री निजलिंगप्पा ने अपने अध्यक्षीय भाषण में उद्योगों के सार्वजनिक क्षेत्र की आलोचना की जबकि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस अधिवेशन में समाजवादी नीतियों का जोरदार समर्थन किया।


बंगलौर अधिवेशन: प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी को हटाने की साजिश


प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी की सदा यह कोशिश रही है कि जो नीतिया स्वीकार की जा चुकी है उन पर अमल किया जा। 1969 में बंगलौर अधिवेशन के समय उन्होनं कार्य समिति के समक्ष एक नोट पेश किया जो ‘‘स्ट्रे थाट’’ (छुटपुट विचार) के नाम से प्रसिद्ध है। इसे कांग्रेस की कार्य समिति और अखिल भारतीय कांग्रेस कमटी ने मंजूर कर लिया। इंदिरा जी का यह नोट देश की आर्थिक स्थिति की सही समीक्षा और कांग्रेस द्वारा किये गये पिछले वायदो के क्रियान्वयन के लिए जोरदार आह्वान था।

कांग्रेस के अंदर प्रतिक्रियावादी विचार वाले लोगो ने इंदिरा जी के छुटपुट विचारो को स्वीकार करने के बावजूद उन्होंने लागू करने में सहयोग नही दिया। अखिल भारतीय कांग्रेस कमटी द्वारा स्व्ीकृत 10 सूत्री कार्यक्रम के अनुसार प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी ने बैकों के राष्ट्रीयकरण का ऐलान किया तो श्री मोरारजी देसाई ने जो उस वक्त वित्त मंत्री थे, विरोध में त्यागपत्र दे दिया।

इसी दौरान राष्ट्रपति डाॅ जाकिर हुसैन की मृत्यु हुई और प्रतिक्रियावादियों ने इसका लाभ उठाकर घरेलू और विदेश नीतियों को बदलने का अच्छा मौका समझा। कांग्रेस के अन्दर थोडे से लोगो के एक ग्रुप ने जो सिन्डीकेट के नाम से प्रसिद्ध था, अपनी मर्जी के व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाने की कोशिश की।

सिन्डीकेट ग्रुप और श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी के मतभेद के पीछे यथास्थिति बनाये रखने और परिवर्तन तथा निहित स्वार्थो और जनता की आकांक्षाओं के बीच टक्कर प्रमुख थी। प्रतिक्रियावादी विरोधी पार्टियों और कांग्रेस के सिन्डीकेट ग्रुप की अंदरूनी साजिश थी कि श्री संजीव रेडडी के विरूद्ध श्री वी.वी. गिरि राष्ट्रपति पद के लिये उम्मीदवार के तौर पर खडे हुए। श्री गिरि की विजय कांग्रेस के अंदर प्रगतिशील नीतियों का विरोध करने वाली शक्तियों की करारी हार थी।


1969 कांग्रेस का विभाजन


कांग्रेस के अन्दर प्रतिक्रियावादी लोग अब खुलकर सामने आये। श्री फखरूद्दीन अली अहमद और श्री सुब्रमंयम को हटाकर कांग्रेस की कार्य समिति में बहुमत प्राप्त करने की कोशिश की गई। यही नही वे एक कदम और आगे निकल गये और उन्होंने श्रीमती इंदिरा गांधी को ही कांग्रेस से निकाल दिया।

देश के अधिकांश कांग्रेसजनो ने कांग्रेस के प्रतिक्रियावादी नेताओं के इन लोकतंत्र विरोधी कार्यो को सख्त नापसन्द किया और श्रीमती गांधी का समर्थन किया। भारी संख्या में अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी के सदस्यों ने समिति की बैठक की मांग की। लेकिन श्री निजलिंगप्पा नही माने, जिसके फलस्वरूप नवम्बर 1969 में समिति ने विधिवत बैठक में श्री सुब्रमंयम को कांग्रेस अध्यक्ष चुना। उसके फौरन बाद दिसम्बर 1969 में श्री जगजीवन राम की अध्यक्षता में बम्बई अधिवेशन हुआ जिसमें एक ठोस कार्यक्रम तैयार कर नयी गतिशीलता का परिचय दिया। तात्कालिक कार्य था अािर्थक विषमताओं को कम करना, उत्पादन और वितरण के साधनो पर सामाजिक नियंत्रण बढाना और साम्प्रायिक तथा तत्वों का विरोध करना था।


जनता द्वारा कांग्रेस में पूरा विश्वास व्यक्त: 1971 के मध्यावधि चुनाव


प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी को संसद के दोनो सदनो में कांग्रेस का आवश्यक बहुमत न रहने के कारण समाजवादी नीतियो के कार्यान्वयन में रूकावटे आने लगी। अतः उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने यह फैसला किया कि इस संबंध में जनता की राय मालूम की जाय। 1971 में लोकसभा के मध्यावधि चुनाव परिणामों ने सिद्ध कर दिया कि लोगो का कांग्रेस के सिद्धांतो और कार्यक्रमों में दृढ़ विश्वास है। कांग्रेस को लोकसभा में दो तिहाई से भी अधिक स्थान प्राप्त हुए। उसके तुरंत बाद भूतपूर्व नरेशों के विशेषाधिकार और प्रिवीपर्स समाप्त करने के लिये जो अवरोध प्रगतिशील सामाजिक आर्थिक उपायो के लिये कानून बनाने में बाधक थे, उन्हें हटाने के लिये शीघ्र कदम उठाये गये।


बांगला देश को आजादी: श्रीमती गांधी का शानदार नेतृत्व


दिसम्बर 1971 में पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया, लेकिन भारतीय सेनाओं से उसे करारी हार खानी पडी। बंगलादेश गणराज्य का उदय हुआ जो भारत की शांति, लोकतंत्र में आस्था
श्रीमती इंदिरा गांधी के देश को विवेकपूर्ण नेतृत्व, विजय की घडी में उनकी विनम्रता और सिद्धांतो पर उनकी दृढ़ता से सारी दुनिया में भारत की प्रतिष्ठा बढी़।


लोकतंत्र को नष्ट करने के लिये प्रतिक्रियावादियों के असंवैधानिक तरीके


लोकसभा के 1971 के चुनावों, राज्य विधान सभाओं के 1971 उसके बाद उत्तर प्रदेश और उडीसा की विधान सभा के 1974 के चुनावों में बार-बार मुंह की खाने पर निराश हो जाने से कुछ सामन्तवादी और निहित स्वार्थो ने आशा ही छोड दी कि वे वोटों और लोकतंत्रीय तरीको से इतिहास को लौटा सकते है।

सन् 1974 की शुरूआत गुजरात में आंदोलन से हुई। नव निर्माण संघर्ष समितियां बनाई गई जिससे अहिंसक तरीको द्वारा लोकतंत्र के काम में रूकावट डाली जाय और शांति भंग की जाये। निर्वाचित विधायको का घेराव किया गया उन्हें डराया धमकाया गया और उनकी बेइज्जती की गई जिससे मजबूर होकर वे इस्तीफा दे दे। यहां तक कि अन्त में श्री मोरारजी देसाई ने विधान सभा भंग कराने के लिये आमरण अनशन रखा। गुजरात आंदोलन में कई व्यक्तियों की जाने गई और करोड़ो रूपये की सरकारी व निजी सम्पत्ति का नुकसान हुआ। हिंसात्मक आंदोलन की प्रक्रिया बिहार से शुरू हुई। विपक्षी दलो ने केन्द्र सरकार को ठप्प करने के लिये देश भर में बंद, घेराव, आंदोलन तोडफोड और औद्योगिक कर्मचारियों, पुलिस और रक्षा सेनाओं को भडकाने का सुनियोजित कार्यक्रम तैयार किया। यह कार्यक्रम 29 जून 1975 को शुरू किया जाना था। इस प्रकार लोकतंत्रीय तरीके को छोडकर अंसवैधानिक तरीको का रास्ता अपनाया गया।


आपात स्थिति की घोषणा


इन परिस्थितियों में भारत के राष्ट्रपति को मजबूर होकर 26 जून को आपात स्थिति की घोषणा करनी पडी। इसी दिन राष्ट्र के नाम अपने प्रसारण में प्रधानमंत्री ने देश में आपात स्थिति घोषित करने के कारणों पर प्रकाश डालते हुये कहा कि ‘‘ लोकतंत्र के नाम पर लोकतंत्र का काम ठप्प करने की कोशिश की गई है। कानूनी तरीके से निर्वाचित सरकारो को काम नही करने दिया गया है और कुछ मामलो में सदस्यों को इस्तीफा देने के लिये मजबूर करने के लिये बल प्रयोग किया गया है जिससे गैर कानूनी तरीके से निर्वाचित विधान सभाये भंग कर दी जाये।’’

आपात स्थिति की घोषणा के साथ ही सरकार ने उन लोगो के खिलाफ, कार्यवाही की जो देश में अराजकता फैलाना चाहते थे। कांग्रेस संगठन ने राजनीतिक शिक्षा देने का व्यापक अभियान चलाया। अनुशासन तथा कर्तव्य परायण की भावना राष्ट्रीय जन जीवन की एक अंग बन गई। हडताल, तालाबंदी, बंद और घेराव एकदम बन्द हो गये, कानून और व्यवस्था की स्थिति बहुत सुधर गई, अपराध कम हो गये और कारखानों में उत्पादन बढ़ गया। यहां तक की संत विनोबा भावे ने इस बीच के युग को ‘‘अनुशासन पर्व’’ की संज्ञा दी।

देश में शांति व व्यवस्था कायम कर और आथर््िाक स्थिति सुदृढ़ बनाने के बाद प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी ने आपात स्थिति हटा दी और लोकतांत्रिक प्रणाली के अनुसार चुनाव करा दिये।


1977 के चुनाव में कांग्रेस की हार और कांग्रेस मे विभाजन


वर्ष 1977 के लोकसभा चुनाव के पूर्व कई प्रतिक्रियावादी दलों का गठबंधन ‘‘जनता पार्टी’’ के रूप में सामने आया। जनता पार्टी को लोकसभा में बहुमत मिला और उसने सत्ता सम्भाली कांग्रेस लोकतांत्रित प्रणाली के अनुरूप विरोधी प़क्ष की भूमिका निभाने लगी।

कांग्रेस संगठन में 1977 के चुनाव मे हार के बाद आंतरिक तनाव बेहद बढ गया। जब हालात ऐसी हो गयी कि कांग्रेस अब अपनी पहचान और प्रभावी नेतृत्व खो देगी तो कांग्रेस महासमिति के बहुमत सदस्यों का पहली और दूसरी जनवरी 1978 कों नई दिल्ली में एक सम्मेलन हुआ और उसमें श्रीमती इंदिरा गांधी को सर्वसम्मति से कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया। इस कदम का समर्थन जनता ने भी फरवरी 1978 में आन्ध्रप्रदेष और कर्नाटक की विधान सभाओं के लिये हुये चुनावो तथा विभिन्न उप चुनावो में किया। उन्होने यहां तक फैसला दिया कि केवल कांग्रेस (ई) ही देष को धर्मनिरपेक्षता , समाजवाद और न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था की सही दिषा में ले जा सकती है।

कुछ नेताओं ने इंडियन नेषनल कांग्रेस के नाम से जिसे अब कांग्रेस (एस) कहा जाने लगा, एक टूटी फूटी पार्टी के रूप में अपने को बनाये रखा, हालाकि उन्हें बार बार पराजय का मुंह देखना पडा उनकी एक मात्र प्रेरणा सत्ता की धुन थी और अन्त में श्री चरणसिंह के मंत्रिमण्डल में उन्हें पदांे के पुरूस्कार मिले किन्तु उनकी पार्टी जनता की दृष्टि में पूरी तरह असंगत सिद्ध हो चुकी है और राजनीतिक दुनिया से तेजी से लुप्त हो रही है।

जैसा कि सर्वविदित है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (ई) जिसका यह नाम चुनाव आयोग द्वारा उसके पहचान चिन्ह के रूप में दिया गया, श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में मार्च 1977 में ही एक प्रभावषाली लोकतांत्रिक दल के रूप में काम करती रही। उसने अनेक ऐतिहासिक लोकप्रिय संघर्षो का नेतृत्व किया।

बिहार में बिछली कांड हुआ, जिसमें हरिजनो को जिंदा जला दिया गया। बिछली जैसे सुदूर बिहार के गांव में इंदिरा गांधी का दौरा तथा हरिजनो से अपनी सहानुभूति दर्षाना उनकी गरीबो हरिजनो और शोषित मानवता के प्रति सहानुभूति ने इंदिराजी और कांग्रेस की लोकप्रियता को बढाया जो राजनीतिक क्षेत्र में कांग्रेस के लिये एक मील का पत्थर साबित हुई। वर्ष 1980 के चुनावो में इसे सिद्ध किया जब इंदिरा गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 544 लोकसभाई सीटों मे से 351 स्थान प्राप्त कर भारी बहुमत से चुनाव जीता।

इंदिरा जी ने वर्ष 1980 में जब पुनः सत्ता संभाली तो उन्हें विरासत में जनता शासन के तीन वर्षो में जीर्ण शीर्ण की गई व्यवस्था मिली। जनता पार्टी के अन्ध विष्वासी तथा यथा स्थिवादी नेताओं ने 70 के दषक में कांग्रेस सरकार द्वारा चलाये गये तमाम प्रगतिषील कार्यक्रमो को बंद कर दिया। उदाहरण के तौर पर 1977 के पहले जिन हरिजनो को भू आवंटन किया गया था उसे वापस लेकर पुनः उनके मालिको को सौंप दिया गया। यह गांवो में बडे किसानो का वह प्रभावषाली वर्ग था जिसने 1977 में कांग्रेस को हराने में पूरी शक्ति लगाई थी। इसी प्रकार वे सभी कार्यक्रम जो चाहे प्रारंभ से ही कांग्रेस ने जिस धर्मनिरपेक्षता के लिये कार्य किया और अपने आपको समर्पित किया उसे भी जनता शासन ने नष्ट करने में कोई कसर नही उठा रखी।

इंदिराजी ने सत्ता सम्भालने के पष्चात जो सबसे पहला कार्य किया वह था जनता शासन द्वारा तीन वर्षो में जो सामाजिक तानेबाने पर प्रहार किया गया था उसे पुनः जोडा और उसमें नई जान फूंकी। 20 सूत्रीय कार्यक्रम में शहरो और गांवो में बसने वाले गरीब और कमजोर तबके के लोगो के आर्थिक विकास पर विषेष बल दिया गया था। साथ ही साथ ऐसी नीतियों को समाप्त किया जो सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से दो समुदायों में वैमनस्य तथा मनमुटाव पैदा करती हो। 1980 की बदली हुई परिस्थितियों में कांग्रेस ने पुनः धर्मनिरपेक्षता का प्रतिपादन किया जो जन्म से ही इसे घुटटी 

अस्सी के दषक में इंदिरा जी के शक्तिषाली हिमालयी व्यक्तित्व का सर्वोत्तम उदाहरण संभवतः विष्व की तीसरी दुनिया के देषो को उनके द्वारा दिया गया नेतृत्व है। यह विषिष्ट गुण उन्हें अपने महान पिता से विरासत में मिला था जो इस विष्वास पर आधारित था कि एषिया, अफ्रिका तथा लेटिन अमेरिका के नव स्वतंत्र राष्ट्रो की अपनी राजनैतिक एवं आर्थिक दृष्टि तथा रूचि है जो उन्हें जहां एक करती है वही वह इन्हें महाषक्तियों से अलग करती है। गुटनिरपेक्षता का ऐतिहासिक आधार चाहे जो रहा हो इंदिरा जी ने बांगला देष की मुक्ति के लिये हो रहे संघर्ष के समय घटनाक्रमो में भी उन्होंने गुटनिरपेक्षता में अपना पूर्ण विष्वास व्यक्त किया था। बंगलादेश की मुक्ति के बाद के दषक में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति मंे घटने वाली घटनाओं में इंदिरा जी के इस विष्वास को और शक्ति दी की युद्ध एवं शांति जैसे विषाल मुददे 20 वी शताब्दी में केवल गुट निरपेक्ष मंच से ही सुलझायें जा सकते है। विष्व समुदाय मे तेजी से फैल रही आर्थिक अराजकता एक ओर बडी समस्या पैदा कर रही थी जो शायद तीसरी दुनिया के देषो के आर्थिक प्रस्ताव का इंतजार कर रही थी। इंदिराजी जब तक प्रधानमंत्री रही तब तक वे बराबर विकसित एवं विकासषील देषो के बीच बराबरी के आर्थिक संबंधो पर जोर देती रही। संभवतः गुट निरपेक्ष देषो के 1983 के सम्मेलन की अध्यक्षता इंदिराजी के जीवन के कुछ सुखद क्षणांे मे से एक था। एषिया, अफ्रिका तथा लेटिन अमेरिकी देषों के नेताओं के सम्मुख बोलते हुये इंदिराजी ने कहा - गुटनिरपेक्ष आंदोलन अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक संघर्षो के पुनः निर्माण के लिये सषक्त ढंग से खडा है। हम हर राष्ट के आर्थिक संसाधनो तथा नीतियों के साथ है अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के संचालन के लिये हम बराबरी की आवाज चाहते है। हम न्याय और समानता पर आधारित नवीन अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंधो के लिये अपनी प्रतिबद्धता को पुनः दोहराते है।

हमारी योजनायें हमारे लोगो की खुषहाली, विष्व शांति तथा निःषस्त्रीकरण की विष्वसनीय शांति प्रदान कर सकती है। नााभकीय अस्त्रों वाले देषो के बीच पारस्परिक बातचीत में बहुत ही सीमित प्रगति हुई है। हम अनाभिकीय देष है और चाहते है कि नाभकीय ऊर्जा का प्रयोग केवल शांति के लिये हो। किन्तु हमें भी जीवित रहने और कहने का अधिकार है। मानवता के नाम पर तथा हम सभी लोगो की ओर से नाभकीय अस्त्रों से लैस सभी देषो से कहना चाहता हूॅ कि वे नाभकीय अस्त्रों के किसी भी परिस्थिति में प्रयोग से तथा धमकाने में बाज आये सभी नाभकीय अस्त्रों का परीक्षण उत्पादन तथा स्थापना पूर्णतः बन्द करे तथा किसी नतीजे पर पहुंचने की इच्छा शक्ति के साथ निःषस्त्रीकरण पर बातचीत प्रारंभ करे।

यदि दुर्भाग्य ने समय के इस मोड पर इंदिरा जी को हमसे न छीन लिया होता तो निष्चित रूप से उन्हांने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सेना और आर्थिक मामलो में मसविदों के माध्यम से पूरी मानवता की बहुत बडी सेवा की होती। परन्तु भारत मे ंराजनैति परिस्थितियों के दुर्भाग्यपूर्ण परिवर्तन के कारण ऐसे व्यक्तित्व को जिसकी उपलब्धियां महान थी, जिसके अनुभव इतनी विभिन्नता लियंे हुये थे कि हमसे छीन लिया। ंराजनैति परिस्थितियों के इस दुर्भाग्यपूर्ण मोड ने कांग्रेस और सिख समुदाय के संबंधो को प्रभावित किया और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को जो भारतीय एकता का आधार है। प्रारंभ से ही विभिन्न वर्गो और समुदायो ने अपनी आषाओं और आंकाक्षओं की पूर्ति हेतु कांग्रेस की नीतियो को अपना बिना शर्त समर्थन दिया। जिन्होने ऐसा किया उनमें सिख समुदाय भी था। परिश्रमी और उत्साही कृषको ने अपने परिश्रम से 1947 के पूर्व ही पंजाब को इस उपमहादृीप का अनन्त भंडार बना दिया था। पंजाब के लोगो ने आजादी की लडाई में बहुत बडा योगदान दिया तथा 1920 से लगातार दूसरे समुदायो के साथ कंधे से कंधा मिलाकर साम्रज्यवादी ताकतो के विरूद्ध लडाई लडी।

अकाली दल के माध्यम से इंदिरा सरकार के सामने सिख समुदाय की कुछ मांगे रखी। इनमें कुछ मांगे आर्थिक थी कुछ भाषायी तथा कुछ धार्मिक आजादी तथा सांस्कृतिक स्वायत्ता से संबंधित थी इंदिरा जी सिख समुदाय की बडी प्रषंसक थी। वे उनकी वास्तविक नेताओं का सम्मान भी करती थी अतः उनके नेताओं से उन्होंने बातचीत प्रारंभ की यह सुनिष्चित करने हेतु कि यदि उनकी समस्यायें वास्तविक है तो उनका निदान हो। समुदाय में कुछ ऐसे लोगो के छोटे समूह थे जो इन सही गलत मांगो को आधार बनाकर राष्ट्रीय अखंडता पर प्रहार करना चाहते थे। उन्होेंने इसे पूरा जातीय रंग दिया। यद्यपि उन्हें बहुमत का समर्थन नही था फिर भी उन्होंने भय और हिंसा का प्रश्रय लेकर पंजाब में एक भयानक स्थिति उत्पन्न कर दी। इस स्थिति का सबसे खतरनाक पहलू था पंजाब में पूजा स्थलो को भारतीय एकता पर प्रहार करने वाले केन्द्रो मे परिवर्तन करना।

दो वर्षो तक इंदिरा जी ने उनके नेताओं से धैर्य पूर्वक बार-बार बात की। परंतु दो वर्षो बाद इंदिराजी ने सोचा कि एक छोटा सा सिख नेतृत्व पूरे देष की एकता और अखंडता को चुनौती देने पर आमाद है जो राष्ट्र के लिये खतरा हो सकता है। यही बात पूरे देष की जनता भी सोच रही थी। अस्तु 3 जून 1984 को इंदिरा जी ने सेना को आदेष दिया कि वे सिखो के पवित्र धार्मिक स्थलो की उग्रवादी और अलगावादी ताकतो के षिकंजे से कम से कम बल प्रयोग करते हुये मुक्त करे, बहुत कम समय से न्यूनतम बल का प्रयोग करते हुये यह कार्य सम्पन्न हुआ।

आंतकवादी और अलगाववादियों ने जिन्हांेने पूरे पंजाब को दो वर्षो तक बंधक बनाये रखा इस कार्यवाही को सिख धर्म पर आक्रमण की संज्ञा दे दी। इंदिरा जी की धर्म निरपेक्षता पर आस्था तथा सिख समुदाय के प्रति उनके आदर के विषय में पूरा हिन्दुस्तान जानता था अतः भ्रमित सिखो के इस प्रचार पर किसी ने विष्वास नही किया। इसके बावजूद सिख आंतकवादी अपनी भयाक्रांत करने की नीति में सफल हुये और 31 अक्टूॅबर 1984 को इंदिराजी के सुरक्षा दस्तें के दो सदस्यों ने जो धार्मिक भावना के किटाणुओं से ग्रस्त कर दिये गये थे इंदिराजी का बेहरमी से कत्ल कर दिया।

दुनिया के इतिहास में संभवतः किसी भी नारी ने 15 वर्षो के समय में किसी राष्ट्र के भाग्य का निर्माण इतने निर्णायक ढंग से नही किया होगा और सारी दुनिया में इतना सम्मान नही पाया होगा। इसलिये उनकी हत्या ने भारत के लोगो को विषेषकर गरीबो और मजदूरो को कही भीतर तक छलनी कर दिया। गरीब और मजदूर उन्हें अपना रक्षक, अपना सर्वस्व मानते थे। फिर भी ऐसे नाजुक मौके पर कांग्रेस ने सिद्ध कर दिया कि वह वास्तव में भारत के महान लोगो के विष्वास के काबिल है। भारतीय इतिहास के छोटे किन्तु अत्यंत निर्णायक अन्तराल में पूरी शीघ्रता और विष्वास के साथ कांग्रेस ने राजीव गांधी जैसे कर्मठ युवा को नेतृत्व सौपा। इस युवा नेता ने अपनी विलक्षण योग्यता और नेतृत्व क्षमता का परिचय पहले ही दे दिया था और भविष्य के प्रति भारी आषाएं जगा दी थी। प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने देष वासियो से कहा कि भारतीय राजनैतिक मंच से इंदिराजी के हटा दिये जाने से सम्पूर्ण राष्ट्र पर पवित्र और बहुत बडी जिम्मेदारी आ गई है। मैने और आपने बहुत कुछ खो दिया जिसकी पूर्ति असंभव है। राजीव गांधी ने कहा मुझे और आपको साथ साथ काम करना है जिससे कि इंदिराजी जो काम अधूरा छोड गई है उसे पूरा किया जा सके।

यद्यपि राजीव गांधी बिना किसी विरोध के नेता चुने गये थे परन्तु फिर भी उन्होंनंे जनता का विष्वास प्राप्त करना आवष्यक समझा। दिसम्बर 1984 में चुनाव करायें और कांग्रेस एक बार पुनः जनता के बीच परीक्षा देने के लिये गई। चुनाव के परिणामों ने यह दर्षा दिया कि किस प्रकार भारत का जनमानस कांग्रेस को देष की एकता अखंडता की प्रतिमूर्ति मानता है और ऐसा दल मानता है जो 

में  राजीव गांधी की व्यक्तिगत विजय थी जिनकी भावी भारत की कल्पना तथा जादुई व्यक्तित्व ने भारतीय जनमानस की स्वप्निल कल्पनाओं को कैद कर लिया था।

कांग्रेस तथा जनता के सहयोग से राजीव जी उन चुनौतियों से जुझने के लिये पूरी शक्ति और विष्वास के साथ खडे हुये जो उनके सामने थी। उनके सम्मुख सबसे पहले थी पंजाब समस्या जिसने सब के दिलो में गहरा घाव किया था। उतना ही आवष्यक था वह आव्हान जो प्रधानमंत्री ने राष्ट्र से किया कि राष्ट्र  अपने आपको उस तकनीकी क्रांति के लिये तैयार करे जो उसे दुनिया के उन राष्ट्रो की पंक्ति में ले जायेगा जो औद्योगिक दृष्टि से विकसित और उन्नत है। चुनाव के बाद राजीव जी ने कहा था:-

आपने मुझे और मेरे दल में असीमित विष्वास व्यक्त किया है। इससे अधिक की इच्छा कौन कर सकता है? कभी ना डगमगाने वाली आस्था और सद्भावना के साथ आपके लिये कार्य करके अपनी सारी शक्ति और ऊर्जा लगाकर उसी प्रकार जैसे आपने अपना विष्वास व्यक्त करने में अपनी सहृदयता दिखाई । उसके अनुरूप अपने आपको काबिल सिद्ध करने की कोषिष करेगे।

कुछ महिनो में हम सातवी योजना प्रारंभ करके हमारे पुराने शत्रुओं, गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी के खिलाफ हमारी जंग जारी रहेगी। आने वाले सप्ताहों से हम अपनी वर्तमान नीतियों एवं कार्यक्रमो का पुननिरीक्षण करेगे, यह सुनिष्चित करने के लिये कि हमारे न्याय साथ विकास का मूलभूत उदेष्य निर्धारित समय में पूरा हो सके।

राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में बिरले ही दिखने वाले उत्साह के साथ देष की जनता ने राजीव जी के आव्हान का स्वागत किया। पंजाब के साथ समझौता कर चंडीगढ में लोकतांत्रिक  ढंग की सरकार की स्थापना कर प्रधानमंत्री ने एक बडे रोडंे को साफ कर दिया और इस प्रकार सामाजिक और अािर्थक पुननिर्माण का रास्ता खोल दिया।

सत्ता संभालने के साथ राजीव गांधी ने 21 वी सदी में भारत के स्वरूप और उसके सामने आने वाली चुनौतियों की कल्पना कर ली थी। उन्होंने इन चुनौतियों का सामना करने लिये रूपरेखा तैयार करना शुरू कर दिया था। इसके लिये प्रशासनिक व्यवस्था में कम्प्यूटरीकृत प्रणाली के साथ संचार क्रांति का आगाज किया। उन्होंने यह भी महसूस किया कि ग्रामीण अंचलो की जनता की प्रशासनिक व्यवस्था में भागीदारी के बिना राष्ट्र का सर्वागीण विकास संभव नही होगा। इसके लिये उन्होंने पंचायतो को अधिकार देने के लिये संविधान में संशोधन की रूपरेखा तैयार की। देश की रक्षा प्रणाली के आधुनीकिकरण के लिये उन्होंने आधुनिक अस्त्रों का निर्माण तथा विदेशो से उनकी खरीदी की पहल की। सेना के लिये बोफोर्स तोपो की खरीदी विवाद का विषय बना तथा उनके वित्तमंत्री श्री वी.पी.सिंह ने इसमें दुराग्रहपूर्ण भूमिका निभाई तथा अपने पद से त्यागपत्र दे राजीव जी के विरूद्ध दुष्प्रचार को हवा दी, इस मामले को लेकर राजनीतिक वातावरण इतना दुषित हो गया कि 1989 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस स्पष्ट बहुमत प्राप्त नही कर सकी। हालाकि वह सबसे बडे दल के रूप में सामने आई। इस नाते उसे पुनः सरकार बनाने का राष्ट्रपति से निमंत्रण भी मिला। लेकिन राजीवजी ने विपक्ष में बैठना बेहतर समझा।

राजीव गांधी विरोधी वी.पी.सिंह ने भाजपा तथा अन्य विपक्षी दलो के गठजोड़ से खिचडी सरकार बनाई। इस सरकार ने अपने अस्तित्व के लिये अन्य पिछडे़ वर्गो को आरक्षण देने के लिये मण्डल आयोग के प्रतिवेदन को अस्त्र बनाया, फलस्वरूप जातीय संघर्ष की स्थिति निर्मित हुई और इस सरकार का पतन हो गया। इसके बाद कांग्रेस के समर्थन से श्री चन्द्रशेखर के नेतृत्व में साझा

लोकसभा के लिये 1991 में मध्यावधि चुनाव कराये गये। इस चुनाव प्रचार के दौरान भी राजीव गांधी तमिलनाडु में पैरम्बुर समुद्रयी समुदाय में एक चुनावी सभा के दौरान आंतकवादियों के आत्मघाती हमले में शहीद हो गये। राष्ट्र के लोकप्रिय तथा प्रखर नेता की हत्या से संपूर्ण राष्ट्र में शोक और आक्रोश की लहर व्यापत हो गई। लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस को बहुमत तो मिला लेकिन वह स्पष्ट बहुमत से कुछ कम था, फिर भी कांग्रेस ने श्री नरसिंहराव के नेतृत्व में सरकार बनाई। इस सरकार ने यथा स्थितिवादी नीति का अनुसरण किया। इसका लाभ उठा भाजपा ने साम्प्रदायिकता के जहर को फैलाया जिसके परिणाम स्वरूप बावरी मस्जिद को ढहाया गया।  इससे सारे देश में भंयकर साम्प्रदायिक दंगे हुये । इसका खामियाजा कांग्रेस को भुगतना पडा और 1996 के लोकसभा चुनाव में वह बहुमत प्राप्त नही कर सकी । वही भाजपा ने अपनी सीटो में इजाफा किया, इस बीच दो गैर कांग्रेसी साझा सरकारे भी देवगौडा और इंद्रकुमार गुजराल के नेतृत्व में की सरकारे बनी लेकिन वे भी एक-एक साल से ज्यादा नही टिक सकी। अततः 1998 में लोकसभा के लिये पुनः मध्यावधि चुनाव हुये। इस चुनाव में भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन राजग ने किसी तरह बहुमत हासिल कर सरकार बना ली। इस सरकार के कार्यकाल में लोक लुभावना घोषणाएं तो बहुत हुई लेकिन देश में यथा स्थिति बनी रही। साम्प्रदायिकता, धन-बल और बाहुबल को बढावा मिला और भ्रष्टाचार बढा।


लोकसभा 2003 के चुनाव मे राजग सरकार ने भारत उदय का नारा देकर जनता को लुभाने की कोषिष की, लेकिन जनता राजग के छलावे में नही आई और उसने उसे विपक्ष में बैठा दिया। कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिषील गठबंधन को बहुमत मिला। कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए देष की जनता में भारी उत्साह था, लेकिन राजग द्वारा सोनिया जी के विदेषी मूल संबंधी दुष्प्रचार को देखते हुए श्रीमती गांधी ने महान त्याग का रास्ता अपनाते हुए प्रधानमंत्री पद ठुकरा दिया तथा सिख समुदाय के डाॅ मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनवाया।

केन्द्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार देष के संतुलित विकास के लिए आम आदमी के कल्याण की योजनाओं को प्राथमिकता दे रही है। ग्रामीण अंचलो की खुषहाली के लिये बहुआयामी भारत निर्माण योजना के साथ ग्रामीण अंचलो में सुनिष्चित रोजगार के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गांरटी योजना कानून बनाकर लागू की गई है। इसी तरह ग्रामीण अंचलो में बिजली पहुंचाने के लिये राजीव गांधी विद्युतीकरण योजना, ग्रामीण स्वास्थ्य के लिए ग्रामीण स्वास्थ्य मिषन, सर्व षिक्षा अभियान, शालाओं में मध्यान्ह भोजन आदि योजनाएं शुरू की गई है। अपनी लोक कल्याणकारी नीतियों का पालन करते हुये संप्रग सरकार ने अपने कार्यकाल के तीन साल सफलतापूर्वक पूरे कर लिए है।

इस तरह हम देखते है कि कांग्रेस सचमुच ऐसा संगठन है जिसके साथ भारत का भाग्य बंधा हुआ है। पिछले 122 वर्षो में इसे ऐसी विरासत मिली है जो दुनिया की और किसी पार्टी को नही मिली होगी। बडे़ बडे नेताओं ने जिनमें  अपने समय के कई महापुरूष भी थे, इस पौधे को बढ़ाया और अब कांग्रेस काफी विवके और परिपक्वता प्राप्त कर चुकी है। यह कई परीक्षाओं कठिनाईयों से गुजरी है और भारत के लोगो ने अच्छी तरह परख कर देख लिया है कि वे इसमें पूर्ण विष्वास रख सकते है।

हर निहित स्वार्थ या गुट जो निर्भीकता, मानव अधिकारो और विचार स्वतंत्रता का विरोधी है। कांग्रेस के सिद्धांतो का विरोधी है कांग्रेस का एक लक्ष्य एक ऐसे भारत का निर्माण करना है  जो विषमताओं और शोषण से मुक्त हो और जिनमें सभी नागरिक खुषहाली दोस्ती और शांति के साथ समान रूप  में रहे। कांग्रेस अपने इस ऐतिहासिक लक्ष्य भी पूरा करके रहेगी।   


डी.पी. राय (पूर्व सांसद )
पूर्व राष्ट्रीय राजनैतिक प्रषिक्षण विभाग
अ.भा. कांग्रेस कमेटी, नई दिल्ली

ads

Ditulis Oleh : shailendra gupta Hari: 04:25 Kategori: